न्यायाधीश आज के देखे ,
बहुत विकृतियाँ लाद रखे |
स्वीकृतियों की बागडोर में ,
अनुकृतियों को तक रखे ||
भाषा उनकी पढ़ते हैं सब ,
अरिभाषा के अर्थ नये |
चमत्कार क्या कर बैठेंगे ,
यही सोचते लाख गये ||
खाक बचा न जिसका कुछ भी ,
उसका मन्तर बोल गया |
अंतर्मन को तौल देख फिर ,
क्या क्या अन्तर खोल गया ||
तुझमें और विधाता में कुछ ,
नहीं तनिक भी भेद यहाँ |
पर तूने तो खोया सबकुछ ,
जो बोया सो मोल गया ||
तौल तुला पर उस ही सब कुछ ,
अपनी माटी अपना ही बुत |
नंगा होकर जाने वाला ,
क्यों सोता है अब कुछ श्रुत ||
धन्य तेरा यह जीवन होगा ,
पावन तन मन यौवन होगा |
मन की लिप्सा डूब मरेगी ,
तन यह चन्दन वंदन होगा ||
हम तो उल्लू काठ कंठ तक ,
गांठ खोलने को आतुर |
पढता लिखता अपना मंथन ,
अपना बंधन अपना धुर ||
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स्वीकृति 24 घंटों के बाद