कविता सुनें

यह रहमत का खेल

फफके बहुत अघाय कुछ, भभके बहुत बुताय |
जो समझे वह समझ ले, झूठी अपनी गाय ||

कड़वा बनकर सब लिखूं, पर मीठी यह बात |
ढीठ कोई सरदार जो , अपनी भूमि समात ||

खूंटी पर टांगे  खुदा, राखे  मूठी  बांध |
जब अपना मांगे सभी, देते संधि सड़ांध ||

मैं पीता हूं घूँट वह, जिसका पानी नेक |
एक हमारी साधना, एक हमारा भेक || 


क्या जानोगे तुम जले, कटे भुने से साक |
यह अपना परिहार है, यह अपनी है धाक ||

डोरी तुम डारे फिरे, किसकी नाक नकेल |
अपनी माया जानता, जो हो जाता फेल ||

अंत  यही है संत यही, यही आदि आधार |
भाईचारा ही सही, जो चाहो व्यापार ||

कितना लूटोगे कटा, बंटा व्याधि का बेल |
तौले जी भर आँकता, यह रहमत का खेल ||

No comments:

Post a Comment

स्वीकृति 24 घंटों के बाद