कवि कहते हो...!
कवि का धर्म निभाओ तो...
अपनी पाप पोटली खोलो ,
अपने को ही पाओ तो...
फिर लिखना, पढ़ना सब कुछ
अपनी बात निभाओ तो...
आधार कहाँ पर टिकता किसका ?
अनुभव किसके गढ़े हुए हैं ?
पढे हुए हैं सब अनपढ़ से !
अपनी उलझन में जड़े हुए हैं |
फिर कहते हैं कविता लिखकर...
हम हैं जग में बड़े महान !
किसका परिचय ? किसका ज्ञान ?
नहीं जानते वह तो खुद भी...
कैसा खुदा ? कहाँ अंजान ?
रूप बटोरे घर की कोठी |
मन के भाव पढ़े बस रोटी |
रोग विनाशक कथा कहाँ है ???...!
भोग प्रकाशक व्यथा कहाँ है ???...!
चाह रहे हैं जो कुछ मिलता...
उनकी धरती उनका नाम...|
कवि कहते हो...!
कवि का धर्म निभाओ तो...
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