कविता सुनें

मंथन में भी मरा नहीं मैं


मंथन में भी मरा नहीं मैं ,
जिनसे बंधन दूर हुये |
स्वच्छन्द विचरते आसमान में ,
अन्धेन में बस क्रूर हुये ||


रंग भेद क्या जाति भेद क्या ,
भांति भांति के प्रश्न समर्पित |
उत्तर तुम ही दो उन्नति का ,
अवनति भार करूँ सब अर्पित ||


विध्न विधाता पालन कर्ता ,
यह संसार तुम्हारी लीला |
नियम धर्म सब तुमने राखे ,
फिर क्यों उलझे मान रोबीला ||


सब मानो सब जानो अपना ,
अपनी अपनी नीति पढ़ो |
कर लो सबसे प्यार मुहब्बत ,
बस अपनी यह नीति गढ़ो ||


नापो तौलो खोजो परखो ,
सब में एक वही विज्ञान |
सबका वह ही सेतु बना है ,
सबका ज्ञान वही अभिमान ||


आगे उसके और नहीं कुछ , 
जितना चाहो तुम सिर पटको |
मिल जाये तो मानो अपना ,
जो होता सब विधि विधान ||


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