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परिवेश का बदलाव



मैं
विवादित हूँ धरा 
यह पराजित देश है
अपराजिता को छल रहा जो 
वह यही परिवेश है
जिसमें-
हमारे मोम दिल
हो रहे कठोर हैं 
इंसान की........ 
न यह सभ्यता 
सब यहाँ पर ढोर हैं 
भाव को न जानते 
व्यर्थ ही विभोर हैं 
तोर मोर कह रहे 
जन्म एक सा लिए 
जल रहे न बुझ रहे 
ये बात- बात के दिये !

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