शीतल मन की सौम्य सुमेधा ,
अपनी तो सरकार बनी ।
अपने सब सरकारी खर्चे ,
अपना कुछ व्यापार नहीं ॥
अन्धा हूँ पर लिखता हूँ ,
जग के काले कुछ किस्से |
कोरा अपना नाम गाँव है ,
भाव बचे बस उसके हिस्से ||
दौलत की कुंठा रोंक रही ,
अपनी नाव चलाने में |
अपनी नाव डुबोना पहले ,
अपनी जीत बनाने में ||
हम तो उल्लू शुष्क शाख के ,
मंथन जग का कर डाला |
अमृत ही अमृत छान मिला ,
विष का प्याला पी डाला ||
किसकी कोर कमीशन भरता ,
अपना बाप फ़कीर बहुत |
पाप वाप की खाली तशली ,
ढोता सबका भार बहुत ||
हवा बेंचकर अपने धन की ,
चला सियासत करने को |
भरने वाला कूप नहीं जो ,
डूब मिला सब भरने को ||
पंक्षी बनकर हमने तौला ,
अपने तरकश का हर तीर |
वीर नहीं है कोई लल्लू ,
जिसके भाव नहीं गंभीर ||
सुन्न पड़ा है सारा जमघट ,
अपने तीर चलाये जो |
वीरों की यह भूमि नहीं है ,
जीत स्वयं को पाये जो ॥
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स्वीकृति 24 घंटों के बाद