कविता सुनें

मन की कोई आँख नहीं




अरे अपाहिज मूक बधिर तू ,
तुझमें कितने भाव भरे है |
जीवन का संत्रास समझ बस ,
अपने सारे नाम तेरे हैं ||

सबमें तू स्थापित रहता ,
तेरा पारावार नहीं |
भव सागर का बंधन टूटा ,
मन की कोई आँख नहीं ||

सब साक्षात् प्रदर्शित है ,
परदे का कोई काम नहीं |
अपना परिचय भूल गया ,
मूक बधिर अब नाम नहीं ||

कौन दिशा को जाना कैसे ,
किसका कौन स्वरुप यहाँ |
सब में झांके तन मन अपना ,
अपना तो बस रूप जहाँ ||


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