कविता सुनें

आधे भाव समेट के , मांगे सब कुछ मोर

आध्यात्मिक दोहे 


मैं हूं मोम कपास हूं , मै हूं गाजर आम |
मूली मै उस खेत की , जिसका कोइ न दाम ||

सब अनमोल विचार से , किसकी खेती नीकी |
बोयें जोतें जो भले , उनकी माटी ठीकि ||

सब परहित के भाव से , अपना करते लाभ |
अपना तो घर काठ का , अपनी माठे चाभ ||

गुरु बने जो भूख के , उनकी रूखी दाल |
काला सब कुछ कर रहे , अपनी जेब खंगाल ||

आधे भाव समेट के , मांगे सब कुछ मोर |
पोर –पोर पर गिन सखे , होते भाव विभोर ||

हरियाली किस आँख की, अपना देश जहान |
अपना तो बस गाँव ही , है सबका संज्ञान ||

भूली बिसरी छोड़ दो , आभा नूतन बोय |
कौन पुरातन ग्रन्थ का , पंथ गया है खोय ||

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