कविता सुनें

ऐसी है यह चेतना , छा जाये चहुं ओर / This is how this consciousness is swept up




कविता मन का भाव है, कविता मन का घाव |
कविता को तुम कुछ कहो, मै जानूँ बस छाँव ||

अन्तर्मन भी खिल उठे, बोले बन कर मोर |
ऐसी है यह चेतना , छा जाये चहुं ओर ||

कोइ बगीचा सींचता , बनकर खुद ही मौन |
बोले तो कहता यही , पहचानो हम कौन ||

डूबे तो डूबे नहीं , जानो किसका ज्ञान |
अपनी तो पहचानता , अपना है विज्ञान ||



लिखते पढ़ते भाव से , भाषा किसका रूप | 
अंतरहित सब जानता , किसका छाता धूप ||

बोले तो बदले नहीं , जो उसका आधार |
किसकी नापे जा रहा , किसका यह व्यापार ||

पूरब पश्चिम एक सा , एक दिशा चहुं ओर |
कोर पकड़ कर बांधता , आ जाता हर भोर ||

कोई पकड़ता छोड़ता, कोई जोड़ता तार |
अंधे युग का जो खुदा , वह जाने बस जार ||

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