कविता मन का भाव है, कविता मन का घाव |
कविता को तुम कुछ कहो, मै जानूँ बस छाँव ||
अन्तर्मन भी खिल उठे, बोले बन कर मोर |
ऐसी है यह चेतना , छा जाये चहुं ओर ||
कोइ बगीचा सींचता , बनकर खुद ही मौन |
बोले तो कहता यही , पहचानो हम कौन ||
डूबे तो डूबे नहीं , जानो किसका ज्ञान |
अपनी तो पहचानता , अपना है विज्ञान ||
लिखते पढ़ते भाव से , भाषा किसका रूप |
अंतरहित सब जानता , किसका छाता धूप ||
बोले तो बदले नहीं , जो उसका आधार |
किसकी नापे जा रहा , किसका यह व्यापार ||
पूरब पश्चिम एक सा , एक दिशा चहुं ओर |
कोर पकड़ कर बांधता , आ जाता हर भोर ||
कोई पकड़ता छोड़ता, कोई जोड़ता तार |
अंधे युग का जो खुदा , वह जाने बस जार ||
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स्वीकृति 24 घंटों के बाद